उत्तराखंड, जहां एक ओर देश-दुनिया में महाभारत के प्रसंगों का मंचन एक कला और प्रदर्शन के रूप में किया जाता है, वहीं देवभूमि उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में सदियों पुरानी एक लोक परंपरा इसे एक जीवित और चमत्कारी अनुभव में बदल देती है। यह है यहां का प्रसिद्ध ‘पांडव नृत्य’ या ‘पांडव लीला’, जिसमें जब महाभारत के सबसे मार्मिक प्रसंग, ‘चक्रव्यूह में अभिमन्यु वध’ का अभिनय होता है, तो पूरा माहौल भक्ति और त्रासदी के चरम पर पहुंच जाता है।

इस दौरान केवल कलाकार ही नहीं, बल्कि स्वयं पाँचों पांडवों की आत्माएं भी मानवीय रूप में अवतरित हो जाती हैं, जिन्हें नियंत्रित करना मुश्किल हो जाता है।
अभिनय नहीं, ‘अवतरण’ का क्षण
ढोल-दमाऊ की विशेष थाप और महाभारत के प्रसंगों पर आधारित गीतों के साथ शुरू होने वाला यह नृत्य धीरे-धीरे नाट्य मंचन में बदल जाता है। जब कौरवों के महारथियों द्वारा छल से वीर अभिमन्यु को घेरकर मारने का अभिनय चल रहा होता है, ठीक उसी क्षण द्रौपदी, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव का अभिनय कर रहे कलाकारों और कई दर्शको पर एक दैवीय आवेश आता है। यह आवेश इतना तीव्र और वास्तविक होता है कि वे पात्र अपने आपे में नहीं रहते।

मान्यता है कि पुत्र अभिमन्यु के धोखे से मारे जाने के दुःख और क्रोध से, स्वयं पांडवों की आत्माएं शरीर में प्रवेश कर लेती हैं। इस दौरान उनका क्रोध, उनकी पीड़ा और उनका शक्ति प्रदर्शन देखकर हर कोई कांप उठता है।
जब ‘पांडव’ बन चुके कलाकार हो जाते हैं बेकाबू
चश्मदीदों के अनुसार, आवेशित पांडव बने ये कलाकार अमानवीय बल का प्रदर्शन करने लगते हैं। यह स्थिति इतनी गंभीर हो जाती है कि अगर इन्हें तुरंत नियंत्रित न किया जाए, तो वे वास्तव में कौरवों महारथियों के पात्र को मार भी सकते हैं या मंचन में हिस्सा ले रहे अन्य पात्रों को घायल कर सकते हैं।
इस स्थिति में, अनुभवी पुजारी और बुजुर्ग अपनी पारंपरिक शक्तियों और मंत्रोच्चार से इन ‘अवतरित’ आत्माओं को शांत करने का प्रयास करते हैं। यह दृश्य पूरी तरह से विश्वास और आस्था पर आधारित होता है।

रो पड़ता है हर दर्शक
इस पर्व की सबसे बड़ी विशेषता इसकी भावनात्मक गहराई है। अभिमन्यु वध के दृश्य के दौरान, जैसे ही पांडव आवेश में आते हैं, दर्शकों में एक सामूहिक भावुकता उमड़ पड़ती है। यह केवल एक नाटक नहीं रह जाता; यह उस ऐतिहासिक त्रासदी का पुनर्जीवन बन जाता है। गाँव का हर व्यक्ति, स्त्री, पुरुष, वृद्ध और बच्चे, इस दर्दनाक दृश्य को देखकर फूट-फूट कर रोते हैं।
यहां कोई दर्शक ऐसा नहीं होता जो अपने आंसू न रोक पाए। यह उनके लिए एक मनोरंजन नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक और भावनात्मक अनुभव होता है, जहां सदियों पुराना इतिहास उनकी आँखों के सामने जीवित हो उठता है।
सांस्कृतिक धरोहर:
‘पांडव लीला’ केवल एक नाटक नहीं, बल्कि उत्तराखंड की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत का एक अनमोल हिस्सा है। यह दर्शाता है कि कैसे देवभूमि के लोग आज भी अपनी प्राचीन गाथाओं और देवताओं के साथ एक गहरा और जीवंत संबंध बनाए हुए हैं। यह पर्व हमें बताता है कि महाभारत की कहानी उत्तराखंड के कण-कण में, यहां के लोगों के विश्वास में और उनकी लोक कलाओं में आज भी उसी जोश और सच्चाई के साथ जीवित है।
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