स्कूल का गेट खुलते ही एक छोटी-सी दुनिया बन जाती है — बच्चे की झोली, रंग-बिरंगी बैगें, और उस सोच में डूबी एक माँ जो अपने नन्हे से खजाने को भीतर भेजती है। जब शिक्षक उसके बच्चे का हाथ थामकर उसे कक्षा की ओर ले जाते हैं, माँ वहीं गेट के बाहर कुछ देर के लिए ठहर कर खड़ी रह जाती है।

वह खड़ी होकर यह सुनने का प्रयास करती है कि कहीं वह रो तो नहीं रहा है। उसकी नजरें बच्चे के पीछे-पीछे जाती हैं, फिर आसपास के कमरे, नए शिक्षक, और उन बच्चों को देखने की कोशिश करती हैं जिनके बीच उसका अपना बच्चा अब रहने वाला है।
जो बच्चा माँ-पापा, दादा-दादी के बीच खुश रहता था, अब अनजान लोगों के बीच जा रहा है — वहाँ वह कैसा रहेगा, इसी उधेड़बुन में माँ रहती है। वही चिंता, आशा और प्रेम एक अजीब-सा समीकरण बनाते हैं।

इसलिए, अगली बार जब आप स्कूल के गेट पर किसी माँ को देखें जो अंदर की तरफ आँखें गड़ाए खड़ी है, तो जान लें — वह सिर्फ इंतज़ार नहीं कर रही, बल्कि वह अपने बच्चे का भविष्य देख रही है।
