ढोल सागर उत्तराखंड की पारम्परिक मौखिक ग्रंथ परंपरा का हिस्सा है। यह कोई लिखित ग्रंथ नहीं है, बल्कि लोक में पीढ़ी-दर-पीढ़ी ढोल-दमाऊं बजाने वाले औजी और ढोकी समुदाय द्वारा याद किया और सुनाया जाता है।
इसे समझने के लिए हम कुछ बिंदुओं में देखें:
1. ढोल सागर क्या है?
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“ढोल सागर” को देवताओं और पूर्वजों को बुलाने वाली एक लोकग्रंथीय परंपरा माना जाता है।
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जब उत्तराखंड (गढ़वाल और कुमाऊँ) में किसी शादी, देवी-देवता के जागर, या विशेष अनुष्ठान में ढोल-दमाऊं बजता है, तो बजाने वाले इसके साथ जो पंक्तियाँ या मंत्र-जैसे श्लोक बोलते हैं, उसे ढोल सागर कहते हैं।
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यह किसी धार्मिक पाठ की तरह है, जो संगीत, लय और भक्ति से भरा होता है।
2. इसकी उत्पत्ति और परंपरा
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माना जाता है कि यह देवताओं की वाणी है, जिसे सबसे पहले महादेव (शिव) ने लोक को दिया।
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लोकविश्वास है कि ढोल बजाने का ज्ञान और इसके साथ बोला जाने वाला “सागर” देवताओं से ही प्रसाद रूप में मिला।
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यह परंपरा गुरु-शिष्य परंपरा से चली आती है। शिष्य अपने गुरु से यह “ढोल सागर” कंठस्थ करता है।
3. ढोल सागर का महत्व
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शादी-विवाह में वर-वधू के मंगल गीत गाने और शुभ आशीष देने के लिए।
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देवजागरण (जागर) में किसी विशेष देवता को आमंत्रित करने या उनकी कथा सुनाने के लिए।
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पारिवारिक अनुष्ठानों (जन्म, नामकरण, मृत्यु संस्कार आदि) में उस अवसर के अनुसार उपयुक्त ढोल सागर गाया जाता है।
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यह केवल संगीत नहीं, बल्कि अनुष्ठान का नियम है — जैसे कि विवाह में अलग सागर, मृत्यु में अलग, देवता पूजन में अलग।
4. ढोल सागर की भाषा और रूप
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इसमें गढ़वाली और कुमाऊँनी बोली का मिश्रण है।
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शैली मंत्रोच्चार जैसी है — दोहराव, गहरी आवाज और लयबद्धता।
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कई जगहों पर इसमें पुराणों, महाभारत-रामायण की कथाओं के अंश भी मिलते हैं, लेकिन अधिकतर यह लोककथाओं और स्थानीय देवताओं से जुड़ा होता है।
5. विशेषता
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यह पुस्तक के रूप में कहीं उपलब्ध नहीं है (हालाँकि कुछ शोधकर्ताओं ने इसे लिखित रूप में संकलित करने का प्रयास किया है)।
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इसका असली स्वरूप मौखिक और जीवंत है, जो केवल ढोल-दमाऊं की थाप और औजी-ढोकी के उच्चारण से ही अनुभव किया जा सकता है।
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इसे लोक में एक तरह का संगीतमय वेद भी कहा जाता है।
सरल शब्दों में कहें तो ढोल सागर वह लोकधर्मिक गाथा है जो ढोल की थाप और लय के साथ देवताओं, पूर्वजों और मनुष्य को जोड़ती है। यह उत्तराखंड की लोकसंस्कृति का एक अनमोल खजाना है।
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