गिल्ली-डंडा — एक पारंपरिक खेल का परिचय
गिल्ली-डंडा दक्षिण एशिया का प्राचीन ग्रामीण खेल है। इसे छोटे तिरछे लकड़ी के टुकड़े (गिल्ली) और एक लंबे डंडे (डंडा) से खेला जाता है। बहुत सी जगहों पर इसे अलग‑अलग नामों से भी जाना जाता है — जैसे गुल्ली‑डुंडा, विट्टी दांडू, डंडी बियो आदि।

इतिहास और उत्पत्ति
इस खेल का इतिहास बहुत पुराना माना जाता है — कुछ विशेषज्ञों के अनुसार इसकी जड़ें 2500 साल या उससे भी अधिक पुरानी हो सकती हैं और इसका उल्लेख प्राचीन स्रोतों में मिलता है। माना जाता है कि यह खेल महाजनपदों / मौर्य काल के समय से भी खेला जा रहा था और दक्षिण एशिया के ग्रामीण क्षेत्र में लोकप्रिय रहा। इतिहासकार इसे पश्चिमी बैट‑एंड‑बॉल खेलों (जैसे क्रिकेट या बेसबॉल) का एक प्रारम्भिक रूप भी मानते हैं।
खेल के उपकरण
- गिल्ली (Gilli): छोटी, लगभग 6‑10 सेमी की लकड़ी (अक्सर दोनों सिरे पतले)।
- डंडा (Danda): लंबा, लगभग 1.5–2 फ़ुट का लकड़ी का डंडा, जिसे बल्ले की तरह प्रयोग किया जाता है।
ये दोनों चीजें आसानी से गाँवों में बनाने/पाना संभव हैं — इसलिए खेल व्यापक रूप से फैला। 
खेलने का सामान्य तरीका (सरल रूप में)
(नियमों में क्षेत्रीय भिन्नता होती है; नीचे एक सामान्य रूप दिया जा रहा है)
- जमीन पर एक छोटा गोला या खाला बनाया जाता है और गिल्ली को उस केंद्र के पास रखा जाता है।
- खिलाड़ी डंडे की सहायता से गिल्ली के एक सिरे को मारकर उसे हवा में उछालते हैं और फिर हवा में उछली हुई गिल्ली को जोर से मारते हैं — जिससे वह दूर तक जाती है।
- विपक्षी खिलाड़ी गिल्ली को पकड़ने का प्रयास करते हैं; अगर वे पकड़ लेते हैं तो बैट्समैन आउट हो सकता है। अन्य नियम (दौड़कर बेस छूना, अंक गणना आदि) स्थानीय रूप से बदलते हैं।
- टीमों के बीच बारी-बारी से बल्लेबाजी और क्षेत्ररक्षण चलता है; नियमों का विस्तृत सेट स्थानीय परंपरा या प्रतियोगिता के अनुसार बनता है।
कौशल और शारीरिक विकास
गिल्ली‑डंडा खेलने से हाथ‑आँख समन्वय, त्वरित प्रतिक्रिया, संतुलन और फुर्ती (agility) का विकास होता है। ग्रामीण बच्चों के लिए यह मनोरंजन के साथ‑साथ व्यायाम का साधन भी रहा है।

क्षेत्रीय विविधताएँ और नाम
गिल्ली‑डंडा को भारत के अलग‑अलग भाषाई इलाकों में अलग नामों से जानते हैं — जैसे तमिल में कित्ती‑पुल, मलयालम में കുട്ടിയും കൊലും, बंगाली में ডাঙ্গুলি आदि। यह खेल दक्षिण पूर्व एशिया और कुछ यूरोपीय/मध्य पूर्वी स्थलों में भी मिलते-जुलते रूपों में देखने को मिलता है।
आधुनिक स्थिति और चुनौतियाँ
आजकल शहरीकरण, डिजिटल‑मनोरंजन और अधिक संगठित खेलों के कारण पारंपरिक खेल कहीं‑कहीं कम होते जा रहे हैं। परन्तु ग्रामीण इलाकों और लोक उत्सवों में गिल्ली‑डंडा अभी भी बच्चों और बूढ़ों द्वारा खेला जाता है। कुछ स्थानों पर पारंपरिक खेलों को संरक्षित करने के प्रयास भी हो रहे हैं, और नियमों को मानकीकृत कर प्रतियोगिताएँ भी आयोजित की जाती हैं।
सुरक्षा के कुछ पहलू
क्योंकि खेल में तेज़‑तेज़ उड़ती हुई गिल्ली और डंडा होते हैं, चोट का खतरा कभी‑कभी बना रहता है; इसलिए खेलते समय लोगों को ध्यान रखना चाहिए और भीड़ में तेज़ी से नहीं खेलना चाहिए। (हाल के समय में कुछ दुखद दुर्घटनाओं की खबरें भी आई हैं — इसलिए सतर्कता आवश्यक है)।
निष्कर्ष
गिल्ली‑डंडा एक सस्ता, सरल और सामाजिक खेल है जो दशकों तक ग्रामीण भारत और दक्षिण एशिया की यादों का हिस्सा रहा है। यह न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि युवाओं में निपुणता और शारीरिक कौशल विकसित करने का भी एक पारंपरिक तरीका रहा है। यदि हम इन खेलों को पहचान और संरक्षण दें तो हमारी लोक‑खेल संस्कृति बनी रहेगी।
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