
एक समय था जब रंग-बिरंगी कठपुतलियाँ दर्शकों को हँसाती, रुलाती और सोचने पर मजबूर कर देती थीं। इन कठपुतलियों के पीछे की अद्भुत कला और उन्हें जीवंत करने वाले कलाकारों की मेहनत आज भी हमारी सांस्कृतिक धरोहर में चमक रही है। एक समय था जब गाँव-शहर की गलियों में कठपुतली शो लगना किसी त्योहार से कम नहीं होता था। छोटे से मंच पर लकड़ी की इन छोटी-छोटी कठपुतलियों की हरकतें देखकर बच्चों के चेहरे पर मुस्कान खिल उठती, और बड़ों की आँखों में नयापन झलकता।

कठपुतलियाँ केवल मनोरंजन का साधन नहीं थीं। उनके माध्यम से समाज की कहानियाँ, लोककथाएँ, वीर गाथाएँ और हास्यपूर्ण घटनाएँ भी पेश की जाती थीं। इन कठपुतलियों को नियंत्रित करने वाले कलाकारों की कला अद्भुत होती थी। महीनों की मेहनत और अभ्यास के बाद, वे लकड़ी के टुकड़ों को इतना जीवंत बना देते कि दर्शक भूल जाते कि यह केवल कठपुतली है। आज, आधुनिक तकनीक और डिजिटल मनोरंजन के युग में, कथपुतली का जादू कहीं-कहीं ही देखने को मिलता है। लेकिन जो लोग इसे जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं, वे इसे केवल कला नहीं बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत के रूप में संजोए हुए हैं। कठपुतली की यह कला हमें यह सिखाती है कि रचनात्मकता, धैर्य और समर्पण के साथ साधारण चीज़ों को भी अद्भुत रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। यह केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि भावनाओं और कहानियों का माध्यम है, जो पीढ़ियों को जोड़ता है और हमारी सांस्कृतिक पहचान को मजबूत बनाता है।
