देहरादून की सड़कों पर थम गया तांगे का सफर
देहरादून की सड़कों से तांगे का सफर अब गुजरे जमाने की बात हो गई है. कभी शहर की पहचान रहे तांगे आज इक्का-दुक्का ही नज़र आते हैं, और वह भी सिर्फ पर्यटन के लिए, न कि दैनिक आवागमन के साधन के तौर पर. यह सिर्फ एक परिवहन के साधन का अंत नहीं, बल्कि एक युग का अवसान है, जो देहरादून के इतिहास और संस्कृति से गहराई से जुड़ा हुआ था.
एक समय था जब देहरादून की संकरी गलियों और चौड़ी सड़कों पर तांगों की खट-खट की आवाज गूंजती रहती थी. रेलवे स्टेशन से लेकर पलटन बाजार, घंटाघर से लेकर राजपुर रोड तक, तांगे ही लोगों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाते थे. वे न केवल सस्ते थे, बल्कि पर्यावरण के अनुकूल भी थे. तांगा चालक और उनके घोड़े शहर के जीवन का अभिन्न अंग थे. सुबह से शाम तक, वे tirelessly काम करते थे, लोगों को उनकी मंजिल तक पहुंचाते थे. तांगे पर बैठकर शहर के नज़ारे देखना, ठंडी हवा का अनुभव करना और धीमी गति से यात्रा का आनंद लेना, देहरादून के लोगों के लिए एक सामान्य अनुभव था.
लेकिन समय के साथ सब कुछ बदल गया. 20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी की शुरुआत में, पेट्रोल और डीज़ल से चलने वाले वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ी. ऑटो-रिक्शा, फिर टैक्सी, और उसके बाद निजी कारों ने तांगों की जगह ले ली. तेज रफ्तार और आधुनिकता की इस दौड़ में, तांगा अपनी धीमी गति और पारंपरिक स्वरूप के कारण पिछड़ गया.
धीरे-धीरे तांगा चालकों के लिए भी गुजारा करना मुश्किल हो गया. घोड़ों का रख-रखाव महंगा होता गया और यात्रियों की संख्या कम होती गई. कई तांगा चालकों ने अपना पुश्तैनी काम छोड़कर दूसरे व्यवसाय अपना लिए. जो कुछ बचे थे, वे भी अब इक्का-दुक्का ही दिखते हैं, अक्सर किसी पर्यटक स्थल के पास, nostalgia का एक प्रतीक बन कर.
देहरादून की सड़कों से तांगे का चले जाना केवल एक परिवहन के साधन का अंत नहीं है, बल्कि यह एक तरह से शहर की पहचान का भी हिस्सा था. यह उस शांत और सरल जीवनशैली का प्रतीक था, जो अब भागदौड़ भरे आधुनिक जीवन में कहीं खो गई है. आज जब हम देहरादून की सड़कों पर दौड़ती हुई गाड़ियों का रेला देखते हैं, तो अनायास ही उन दिनों की याद आती है, जब तांगों की धीमी और लयबद्ध चाल पर शहर का जीवन चलता था. शायद भविष्य में, तांगे देहरादून के इतिहास की किताबों में या तस्वीरों में ही नज़र आएंगे, एक ऐसे युग की निशानी के तौर पर, जब जीवन थोड़ा धीमा, थोड़ा सरल और थोड़ा अधिक शांत था.
लेख
उपेंद्र पंवार
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