जीतू बगड़वाल यह सिर्फ एक लोककथा नहीं, बल्कि गढ़वाल की रूह में बसी एक प्रेम कहानी, एक त्याग की गाथा और अलौकिक शक्तियों का संगम है।
जीतू बगड़वाल: बांसुरी की धुन और नियति का बुलावा
हिमालय की गोद में बसे गढ़वाल की शांत वादियों में एक नाम गूंजता है – जीतू बगड़वाल। बगोड़ी गाँव का यह नौजवान सिर्फ एक साधारण चरवाहा नहीं था, बल्कि उसकी बांसुरी की धुन में ऐसा जादू था कि पत्थर भी पिघल उठें और हवाएं भी थम जाएं। उसकी बांसुरी की तान जब फिजाओं में घुलती, तो जैसे प्रकृति भी मंत्रमुग्ध हो जाती थी।
परियों का आकर्षण और एक अनोखा वादा
एक दिन, अपनी बहन सोबनी के ससुराल रैथल जाते हुए, जीतू ने खैट पर्वत के घने जंगलों में डेरा डाला। यह पर्वत, जिसे स्थानीय लोग आंछरियों (वन परियों) का निवास स्थान मानते थे, रहस्य और सुंदरता से लिपटा था। जीतू ने अपनी बांसुरी उठाई और एक ऐसी धुन छेड़ी जो सीधे दिल में उतर जाए। धुन इतनी मादक थी कि नौ सुंदर आंछरियां उसकी ओर खिंची चली आईं। उनकी आंखें जीतू के रूप और उसकी बांसुरी की धुन पर ठहर गईं। वे इतनी मोहित हुईं कि जीतू को अपने साथ अपने अलौकिक लोक में ले जाने पर अड़ गईं।
जीतू ने मुस्कुराते हुए उनसे कुछ समय की मोहलत मांगी। उसने वादा किया कि वह अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद, खासकर आषाढ़ माह की छठवीं गति (छह गते आषाढ़) को धान की रोपाई के दौरान, उनके साथ चलेगा। परियां उसकी सादगी और वादे से प्रसन्न हुईं और उसे जाने दिया।
प्रेम और विदाई का दर्द
जीतू घर लौटा, लेकिन उसका मन बेचैन था। उसकी आत्मा का एक टुकड़ा भरणा में बसता था – उसकी बहन की ननद, जिससे वह असीम प्रेम करता था। भरणा भी जीतू से उतना ही प्रेम करती थी। जब वे मिले, तो हवा में खुशी और उदासी दोनों घुल गईं। जीतू जानता था कि यह उसकी भरणा से आखिरी मुलाकात है, और इस विचार ने उसके हृदय को छलनी कर दिया। हर पल वह नियति के उस कटु सत्य से जूझ रहा था, जिसे टालना असंभव था।
नियति का बुलावा और एक अमर विरासत
फिर आया वह दिन – छह गते आषाढ़। जीतू अपने खेतों में धान की रोपाई कर रहा था, उसका मन आज भी बांसुरी की धुन में खोया हुआ था। तभी, आकाश से उतरती हुई नौ आंछरियां उसे लेने आ पहुंचीं। लोककथा कहती है कि जीतू अपने बैलों के साथ उसी क्षण धरती में समा गया, परियों के साथ उनके लोक में चला गया।
जीतू के अचानक अदृश्य होने से उसके परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। लेकिन उसकी आत्मा ने उन्हें कभी अकेला नहीं छोड़ा। कहा जाता है कि उसकी अदृश्य शक्ति ने अपने परिवार और पूरे गाँव की रक्षा की। जब तत्कालीन गढ़ नरेश मानशाह को जीतू की दिव्य शक्ति का आभास हुआ, तो उन्होंने उसे एक देवता के रूप में पूजने की घोषणा की। आज भी, गढ़वाल की माटी में जीतू बगड़वाल की कहानी जीवित है। धान की रोपाई के समय, लोग उसके बलिदान और प्रेम को याद करते हुए लोकगीत गाते हैं। जीतू बगड़वाल सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि गढ़वाल की संस्कृति का एक अटूट हिस्सा हैं – प्रेम, त्याग और अलौकिक शक्तियों का एक ऐसा संगम जो हमें बताता है कि कुछ आत्माएं इतनी पवित्र होती हैं कि वे धरती पर टिक नहीं पातीं, और अमर होकर पूजी जाती हैं। आज कई गीतकारो ने जीतू बगड्वाल पर अनेक गीत भी बनाये है।
UPENDRA PANWAR