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उत्तराखंड का हरेला हरियाली, संस्कृति और समृद्धि का पर्व -

उत्तराखंड का हरेला पर्व एक महत्वपूर्ण और पारंपरिक त्योहार है, जो मुख्य रूप से हरियाली और कृषि से जुड़ा है। यह वर्षा ऋतु (मानसून) के आगमन का प्रतीक है और प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त करने का एक तरीका है।


हरेला का अर्थ और महत्व

हरेला शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘हरियाली’ से है। यह उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्रों में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। यह त्योहार न केवल खेती-बाड़ी और पर्यावरण से जुड़ा है, बल्कि इसमें लोक परंपराएं, परिवार की खुशहाली और धार्मिक मान्यताएं भी गहराई से जुड़ी हैं। यह पर्व पर्यावरण संरक्षण, वृक्षारोपण और सामाजिक एकता को बढ़ावा देता है।


कब मनाया जाता है?

हरेला साल में तीन बार मनाया जाता है:

  1. चैत्र मास में: चैत्र नवरात्रि के पहले दिन।
  2. श्रावण मास में: श्रावण मास की संक्रांति (कर्क संक्रांति) को। यह सबसे प्रमुख हरेला माना जाता है।
  3. आश्विन मास में: शारदीय नवरात्रि के पहले दिन।

इस साल, 2025 में, श्रावण मास का हरेला 16 जुलाई को मनाया जाएगा।


 

कैसे मनाते हैं हरेला?

 

हरेला की तैयारी लगभग 9 से 11 दिन पहले से शुरू हो जाती है:

  1. बीज बोना: सावन लगने से 9 या 11 दिन पहले, बांस की टोकरी (रिंगाल), मिट्टी के बर्तन या किसी थालीनुमा पात्र में पांच या सात प्रकार के अनाज (जैसे जौ, गेहूं, मक्का, गहत, सरसों, उड़द, भट्ट) बोए जाते हैं।
  2. देखभाल: इन बीजों को अंधेरी जगह पर रखा जाता है और हर दिन सुबह पानी डाला जाता है ताकि वे अंकुरित हों। सूरज की सीधी रोशनी से बचाने के लिए टोकरी को कपड़े या कागज से ढक दिया जाता है।
  3. हरेला काटना: दसवें या ग्यारहवें दिन, इन अंकुरित पौधों को काटा जाता है। 4 से 6 इंच लंबे इन पौधों को ही ‘हरेला’ कहा जाता है।
  4. पूजा और आशीर्वाद: हरेले के दिन, घरों में मिट्टी से भगवान शिव, माता पार्वती और गणेश जी की मूर्तियाँ (स्थानीय भाषा में ‘डिकारे’) बनाई जाती हैं और उनकी पूजा की जाती है। सबसे पहले हरेला भगवान को चढ़ाया जाता है। फिर घर के बुजुर्ग सदस्य इन हरेले के तिनकों को घर के अन्य सदस्यों, विशेषकर बच्चों और नवविवाहित जोड़ों के सिर या कानों पर रखते हैं। इस दौरान वे पारंपरिक आशीर्वाद देते हैं, जैसे:
    • “जी रये, जागि रये.. धरती जस आगव, आकाश जस चाकव है जये.. सूर्ज जस तराण, स्यावे जसि बुद्धि हो.. दूब जस फलिये, सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये।”
    • (यानी, जियो, जागते रहो.. धरती जैसे आगे बढ़ो, आकाश जैसे बड़े हो जाओ.. सूर्य जैसी शक्ति, स्याल जैसी बुद्धि हो.. दूब जैसे फलते-फूलते रहो, सिल पीसकर भात खाओ, लाठी टेककर जाओ)
  5. पकवान: हरेला पर्व पर पारंपरिक पकवान जैसे पूरी, खीर, पूए, बड़े और भट्ट की चुरकानी बनाए जाते हैं।
  6. वृक्षारोपण: इस दिन वृक्षारोोपण को विशेष महत्व दिया जाता है। माना जाता है कि इस दिन रोपा गया पौधा आसानी से जड़ पकड़ लेता है। यह पर्यावरण के प्रति लोगों की जागरूकता और जिम्मेदारी का प्रतीक है।
  7. प्रसाद: हरेला का प्रसाद (पैंड़ा) परिवार में बांटा जाता है। जो लोग घर से दूर होते हैं, उन्हें आशीर्वाद के रूप में हरेले के तिनके चिट्ठी में भेजे जाते हैं।

 

धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताएं

 

  • यह पर्व शिव और पार्वती के विवाह के रूप में भी मनाया जाता है, जिससे यह शिव-पार्वती के मिलन का प्रतीक भी बन जाता है।
  • यह भी मान्यता है कि हरेला जितना अच्छा उगता है, उस साल फसल उतनी ही अच्छी होती है।
  • गढ़वाल में इसे ‘हरियाली देवी’ की पूजा के रूप में भी मनाया जाता है।

हरेला उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का एक अभिन्न अंग है, जो प्रकृति, कृषि और पारिवारिक मूल्यों के गहरे संबंध को दर्शाता है।

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